Friday, May 18, 2012

सीने में इक आग लगाए रखते हैं
मुझको मेरे ख़्वाब जगाये रखते हैं
 
जीने की ये कोशिश हमको मार न डाले
हम दिल के अरमान दबाये रखते हैं
 
मुफलिस को आराम नहीं है उसको अक्सर
आटा, चावल, दाल भगाए रखते हैं
 
हाँ! हम उनसे ख़्वाबों में ही मिलते हैं पर
उन से  यूँ पहचान  बनाए रखते हैं
 
उसका लौट के आना नामुमकिन है लेकिन
हम  फिर भी घर-बार सजाये रखते हैं

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    लिंक आपका है यहीं, मगर आपको खोजना पड़ेगा!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  2. I am not so much into poetry but I liked it, specially the way you end the poem.

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