Monday, October 29, 2012

यहाँ जज़्बात-ओ-एहसासात को अश`आर करने में
बहाया  खून आँखों ने ग़ज़ल से प्यार  करने में
मेरे चेहरे की झुर्रियों को ज़रा तुम गौर  से देखो
लगे हैं उम्र को बरसों मेरा सिंगार करने में
निहत्था उसने भेजा ही नहीं तुमको ज़रा सोचो
लगे है देर कितनी हाथ को हथियार करने में
बहाए तूने ख़त मेरे जला दीं मैंने तसवीरें
लगे हैं हम मुहब्बत के निशाँ मिस्मार करने मे
मिले हैं रात के सीने में कितने तीर किरणों के
हुआ इक ख्वाब खुद चुरा मुझे बेदार करने में
तेरी तस्वीर, तेरे ख़त ये सब अपनी जगह लेकिन
मज़ा कुछ और है ज़ालिम तेरा दीदार करने में
  
हवा, पानी शहर के और जड़ों से टूटना मेरा
यक़ीनन  हाथ है इनका मुझे बीमार करने में
मुहब्बत एक-तरफ़ा भी मुक़म्मल शै है जानेमन
गंवाएं वक़्त क्यों इज़हार या इक़रार  करने में

1 comment:

  1. बहुत दिनों से कुछ नहीं पढ़ा , आज कुछ अच्छा पढ़ना चाहता था , सबसे पहले आपका ख्याल आया |
    समझ नहीं आ रहा कि किस शेर की सबसे ज्यादा तारीफ़ करूँ , सब एक से एक लाजवाब |

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