Friday, November 23, 2012

ख़्वाबों की  ताबीर सोचता रहता हूँ
मैं आँखों से नींद पोंछता रहता हूँ

ज़ालिम और मज़लूम का क़िस्सा लिखने को
मैं ख़ुद अपना मांस नोचता रहता हूँ

मैंने जिस पल तुझको भूलना चाहा था
अब अक्सर उस पल को कोसता रहता हूँ

जिसने मेरे शेर पढ़े अखबारों में
वो क्या जाने मैं क्या सोचता रहता हूँ

 आँखें ही उजियाला हैं समझाने को
मैं सूरज की और देखता रहता हूँ

Monday, November 5, 2012

जहाँ देखो वहां आता नज़र है
तो मुमकिन है ख़ुदा भी दर-ब-दर है

अज़ाबों में यहाँ हर  बा-ख़बर है
मज़े में है वही  जो बे-ख़बर है

उठा लें तेग़ ग़ालिब, ज़ौक-ओ-मोमिन
हुआ शाइर बहादुर शाह ज़फ़र है

यक़ीनन  कोई  तुमको चाहता है
हसीं होना मुहब्बत का असर है

बिखेरा उसने हर इक रंग लेकिन
वही दिखता है जो रंग-ए -नज़र है