Friday, November 23, 2012

ख़्वाबों की  ताबीर सोचता रहता हूँ
मैं आँखों से नींद पोंछता रहता हूँ

ज़ालिम और मज़लूम का क़िस्सा लिखने को
मैं ख़ुद अपना मांस नोचता रहता हूँ

मैंने जिस पल तुझको भूलना चाहा था
अब अक्सर उस पल को कोसता रहता हूँ

जिसने मेरे शेर पढ़े अखबारों में
वो क्या जाने मैं क्या सोचता रहता हूँ

 आँखें ही उजियाला हैं समझाने को
मैं सूरज की और देखता रहता हूँ

3 comments:


  1. जिसने मेरे शेर पढ़े अखबारों में
    वो क्या जाने मैं क्या सोचता रहता हूँ

    वाह वाऽह !

    विशाल जी

    अच्छा लिखा है … पिछली पोस्ट पर और भी अच्छी रचना थी …
    लिखते रहिए …
    …आपकी लेखनी से सुंदर रचनाओं का सृजन हो, यही कामना है …
    शुभकामनाओं सहित…

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    1. Bohot bohot dhanyawad Rajendra ji!! Aap meri rachnaayein padhte aayein hain, jaan kar achha laga.
      Vishal

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  2. बहुत ही सुन्दर |

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